क्या जाति पूछने से विकसित हो जाएगा राज्य : राष्ट्रीय प्रवक्ता

क्या जाति पूछने से विकसित हो जाएगा राज्य : राष्ट्रीय प्रवक्ता

सुपौल(तरूणमित्र)  जातीय जनगणना को लेकर लम्बे समय से सियासी उबाल जारी है।जिद में आकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजकीय खर्च पर 500 करोड़ का बजट जारी कर जातीय जनगणना आरम्भ करवा दिया जिसे पटना उच्च न्यायालय ने तत्काल प्रभाव से रोक दिया है । साथ ही सवाल भी उठाया है कि, क्या जातीय जनगणना के बिना हम विकास की सही दिशा में नहीं बढ़ पाएंगे,पहले से ही जातीय उन्माद में दशकों से पीसते आ रहे बिहार को क्या इसकी जरूरत है, क्या इससे समाज और नहीं बंटेगा और जातीय जहर देश को तबाही की ओर नहीं ले जाएगा।अगर बिहार में जातीय जनगणना होने से नहीं रोका जाता तो देश के अन्य राज्यों में भी यही चलन नहीं आरम्भ हो जाएगा और फिर पूरे देश में जातीय विद्वेष चरम की ओर नहीं बढ़ता चला जाएगा।किसी की जाति पूछकर ही उसका विकास किया जा सकता है आदि? भारत ने सॉफ्टवेयर एवं हार्डवेयर के क्षेत्र में जो तरक्की की है क्या जाति के आधार पर की है या फिर जाति वाला अपनी जाति वाले का भरण पोषण करता है? क्या हर जाति की संख्या के आधार पर सबको आरक्षण देना इसका मकसद है? अगर हां तो क्या यह सही है? ऐसे में क्या यह प्रतिभा (मेरिट) को कुचलने का काम नहीं है। इसके साथ ही पिछले कई दशको से जात-पात को ख़तम करने और अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहित करने की सरकारों की नीतियाँ बेमानी नहीं थीं या नहीं है।

हद तो यह है कि सरकार की तरफ से कोर्ट में यहाँ तक कह दिया गया कि हर सरकार राजनीति के तहत कार्य करती है, वोट बैंक के लिए कार्य करती है। हर राज्य और केंद्र की सरकार वोट बैंक के लिए ही योजना बनाती है।किसी भी सरकार के कामों को वोट बैंक से दूर नहीं कहा जा सकता है यानि उन्होंने मान लिया कि वोटों की खातिर यह जातीय जनगणना कराई जा रही है।

    ज्यादातर राजनीतिक पार्टियाँ जनता के भले या राज्य के भले के लिए कार्य न करके अपने वोट बैंक और सत्ता के लिए काम करने लगती हैं। जिससे देश,राज्य और समाज को भारी नुकसान पहुंचता है।मार्क्स ने 1853 में ही भारत की समस्या पहचान ली थी,उन्होंने लिखा भी है कि भारत की जाति व्यवस्था भारत की प्रगति और समृद्धि में सबसे बड़ी बाधा है।एक सच यह भी है कि जाति व्यवस्था भारत की सच्चाई है और बीमारी भी जिससे भागा नही जा सकता,इसका समुचित इलाज होना चाहिए।सच यह भी है कि "जाति है कि जाती नहीं"। एक धर्म त्याग कर दूसरा धर्म अपनाने वाले अपनी जाति को त्याग नही पाते,अपने जाति प्रमाणपत्र के मोह को त्याग नही पाते,जातिगत लाभ को त्याग नही पाते।

सरकार की ओर से कोर्ट में कहा गया कि जन कल्याण की योजनाओं के लिए जातीय जनगणना कराई जा रही है,इस गणना से सरकार को गरीबों के लिए नीतियां बनाने में आसानी होगी तो जन कल्याणकारी योजनाओं में जाति ही क्यों देखनी है।गरीब की भी कोई जाती होती है क्या?गरीब तो गरीब ही होता है न? क्या अब भीख देने से पहले पूछते हैं कि वह किस जाति का है और क्या उसकी जाति उच्च या निम्न होती है तो आप उसे भीख नहीं देते हैं।यदि कल्याणकारी योजनायें बनानी है तो सिर्फ आर्थिक सर्वेक्षण क्यों नहीं? जातीय आधारित जनगणना क्यों?

यहाँ दुखद बात यह है कि कोई भी दल जातीय जनगणना के खिलाफ खुलकर नहीं बोल रहा है क्योंकि उसको ऐसा लगता है कि इससे उसका वोट खिसक जायेगा और ऐसे में सभी जातीय राजनीति को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बढ़ावा दे रहे हैं यानि हमाम में सभी नंगे हैं किसी को देश, राज्य या समाज के विकास की चिंता नहीं है,चिंता है तो बस अपने वोट की और सत्ता की।

बिहार में सबसे जरूरी जनसंख्या नियंत्रण कानून की है। जिसपर किसी राजनीतिक दल का ध्यान नहीं है।प्रदेश की वर्तमान स्थिति को देखते हुए समता पार्टी राष्ट्रीय प्रवक्ता गणेश कुमार ने गहरी चिंता व्यक्त किया है और कहा कि जातीय आधारित जनगणना के बाद तमाम ऐसे मुद्दे उठेंगे जिससे देश में आपसी भाईचारा व सौहार्द बिगड़ेगा तथा शांति व्यवस्था भंग होगी।जिस जाति की संख्या कम होगी वो अधिक से अधिक बच्चे की वकालत करेंगे जिससे समाज में विषम स्थिति पैदा होगी।आज समय की मांग है कि सरकारें जाति,धर्म से ऊपर उठकर कार्य करें,पर सत्तालोलुप नेता इसके उलट कार्य कर रहे हैं।अगर जनता ने ऐसे नेताओं को सबक नहीं सिखाया तो प्रदेश व देश के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों से निपटना एक विकराल चुनौती ही होगी।