मुगालता न पालें इंडिया गठबंधन की प्रत्याशी व नेता !

- कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने चुनाव प्रचार से किया किनारा

मुगालता न पालें इंडिया गठबंधन की प्रत्याशी व नेता !

- गठबंधन के सहयोगियों की भी खल रही है कमी- कब तक अपने वाहनों में पैट्रोल डालेंगे कार्यकर्ता ?

लायक हुसैन
गाजियाबाद। इसमें कोई शक नहीं है कि कांग्रेस के टिकट पर इंडिया गठबंधन की उम्मीदवार डॉली शर्मा इस बार जीत की लड़ाई में आगे बढ़ सकती हैं, लेकिन शर्त यह है कि उनके चुनाव का प्रबंधन सही हो और सबको साथ लेकर चुनाव लड़ा जाए। फिलवक्त जिस तरह से चुनाव हो रहा है, कहना गलत नहीं होगा कि जीत का दावा कर रहे कांग्रेसी नेता मुगालते में हैं और बेशक जनरल वीके सिंह एक बार फिर चुनाव मैदान में नहीं हैं, लेकिन भाजपा को हल्के में आंकना भारी भूल होगी।

नहीं भूलना चाहिए कि साढ़े 29 लाख मतदाताओं वाली गाजियाबाद संसदीय सीट पर बेशक पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह की जगह इस बार अतुल गर्ग भाजपा के उम्मीदवार हैं, लेकिन कांग्रेस से डोली शर्मा ही दोबारा चुनाव मैदान में हैं। पिछले चुनाव में भाजपा को 61 और कांग्रेस को 7.34 प्रतिशत वोट मिले थे। डॉली से कई गुना ज्यादा तो बसपा के उम्मीदवार सुरेश बंसल ने वोट हासिल कर लिये थे। उन्हें 29.6 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट दिये थे। इस बार कमोबेश स्थिति पुरानी वाली ही है। हालांकि डॉली के अलावा बाकी दोनों दलों के उम्मीदवारों के चेहरे बदले हैं, लेकिन चुनाव प्रबंधन के मामले मे स्थिति जस की तस है। प्रबंधन के मामले में कांग्रेस की ओर से पहले से भी ज्यादा बुरा हाल है।  

कांग्रेस की गुटबाजी चुनाव के दौरान भी हावी है। चुनाव के बीच जिलाध्यक्ष व महानगर अध्यक्ष बदल जाने से निवर्तमान दोनों नेता जिम्मेदारी से फारिग हो गए लगते हैं। कहा जा रहा है कि दोनों नए अध्यक्ष डॉली शर्मा की इच्छा से ही बनाए गए हैं। अब न बिजेन्द्र यादव कहीं दिखते हैं और न लोकेश चौधरी। यही क्यों, टिकट की दावेदारी में पीछे रह गए सुशांत गोयल और डॉ. संजीव शर्मा भी डॉली शर्मा के चुनाव प्रचार से दूरी बनाए हुए हैं। कभी डॉली के पिताजी नरेन्द्र भारद्वाज की टीम का हिस्सा रहे बबली नागर और कार्तिकेय कौशिक भी नदारद हैं। वरिष्ठ नेता पवन शर्मा, लालचंद शर्मा व पूर्व महानगर अध्यक्ष मनोज कौशिक को भी पूरे चुनाव में कहीं नहीं देखा गया है। साहिबाबाद में दर्जन भर वरिष्ठ नेता हैं, जिनका इन दिनों कहीं अता-पता नहीं है। पुराने नेताओं में सिर्फ पूर्व राज्यमंत्री सतीश शर्मा दिखाई दे रहे हैं। सतीश त्यागी और केके शर्मा गाहे-बगाहे तब ही नजर आते हैं, जब चुनाव कार्यालय में पार्टी का कोई बड़ा नेता आता हो। यही हाल गठबंधन के साथी सपा नेताओं का है। सही और कड़वी सच्चाई यह है कि नदारद नेताओं का दोष नहीं बताया जा रहा है। चुनाव प्रचार में लगे नेताओं का ही कहना है कि नरेन्द्र भारद्वाज ने नदारद नेताओं से पूछा ही नहीं कि वे आखिर डॉली के चुनाव से क्यों दूरी बना रहे हैं? कहा तो यह भी जा रहा है कि चुनाव का टैम्पो बनाने के लिये जो नेता लगे हैं, वे प्रचार कम और कान भरने का काम ज्यादा कर रहे हैं। हालत यह है कि चुनाव प्रचार में मेहनत कर रहे नेताओं ने भी धीरे-धीरे किनारा करना शुरू कर दिया है। खासकर युवा नेताओं को यह कहते देखा जा रहा है कि वे बाप के पैसे से अपनी गाड़ियों में पैट्रोल कब तक भरवाते रहेंगे? एमपी बनने के बाद प्रत्याशी अपनी ही जेब भरते हैं, कार्यकर्ताओं को तो कुछ देते नहीं। सपा नेताओं को भी कुछ ऐसे ही कहते देखा जा रहा है।

इससे बेहतर मौका नहीं मिलेगा 
इसमें कतई शक नहीं है कि इंडिया गठबंधन की प्रत्याशी को अपना चुनाव उठाने के लिये इससे बेहतर मौका नहीं मिलेगा। वजह यह है कि न भाजपा के पास जनरल वीके सिंह जैसा कद्दावर प्रत्याशी नहीं है और न बसपा ने सुरेश बंसल जैसा जमीनी नेता मैदान में उतार रखा है। फिर क्षत्रिय मतदाताओं ने भाजपा के खिलाफ वोट देने का खुला ऐलान कर रखा है। इस बड़े वोटबैंक की ओर से कहा जा रहा है कि ठाकुर वोट उसी उम्मीदवार को मिलेंगे जो अंतिम दौर में भाजपा प्रत्याशी के सामने मुख्य मुकाबले में होगा। कमोबेश यही सोच मुस्लिम मतदाता की है। कांग्रेस ने जमीनी नेता विनीत त्यागी को जिलाध्यक्ष बनाकर त्यागी वोटबैंक में भी काफी-कुछ सेंध लगाने की कोशिश की है। ब्राह्मण मतदाताओं का रुझान दिखाने के लिये बिरादरी के नेता जेके गौड़ शक्ति प्रदर्शन कर चुके हैं। इस सबके बावजूद जैसे-जैसे मतदान की तारीख करीब आ रही है, गठबंधन प्रत्याशी के चुनाव प्रबंधन की खामियां भी उजागर हो रही हैं और पार्टी कार्यकर्ताओं के चेहरों पर मायूसी और गुस्से के निशान उभर रहे हैं। कहीं यह मायूसी मतदान के दिन पिछले चुनावों की पुनरावृत्ति ही न कर दे और बेहतर मौका होने के बाद भी हाथ मसलने की मजबूरी न बन जाए।

Tags: Election

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