अलग पश्चिमी उत्तर प्रदेश
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लोकसभा चुनाव में अब बहुजन समाज पार्टी अध्यक्ष मायावती नए तेवर में दिखाई दे रहीं हैं। ऐसा लगता है कि बसपा सुप्रीमो पार्टी पर भाजपा की 'बी' टीम होने क़े आरोपों को धोने क़े लिए उत्सुक हैं। उन्होंने उप्र में कुछ सीटों पर मजबूत प्रत्याशी खड़े कर भाजपा नेतृत्व की नींद ख़राब कर दी है। मायावती ने भले अपने चुनाव अभियान की शुरुआत देर से की हो, लेकिन उनकी सभाओं में भीड़ दिख रही है। मायावती क़े उत्तराधिकारी आकाश आनंद भी धीरे धीरे फायर ब्रांड नेता क़े तौर पर उभर रहे हैं और भाजपा की नीतियों क़े खिलाफ आग उगल रहे हैं। हाल में मायावती ने उनकी सरकार बनने पर पच्छिम उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने का शिगुफा फेका है। मायावती 2012 में भी उप्र का मुख्यमंत्री रहते उप्र को चार भागों बुंदेलखंड, पच्छिम, पूर्वांचल और मध्यांचल में बांटने का प्रस्ताव उप्र विधानसभा में पारित करा चुकी हैं।
यह मायावती भी जानती हैं कि उनकी केन्द्र में सरकार बनना अब दिवास्वप्न से अधिक कुछ नहीं है और अगर इंडिया गठबंधन किसी प्रकार सत्ता में आता है और मायावती इसका हिस्सा बनती हैं तो भी वे उप्र क़े टुकड़े कराने की स्थिति में नहीं होंगीं। फिर भी उन्होंने ऐसा कर एक राजनीतिक शिगुफ़ा चला है। बता दें, भाजपा भी छोटे राज्यों की समर्थक होने का दावा करती है और केन्द्र में अटलबिहारी सरकार में उसने उत्तराखण्ड, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ राज्य बनाए भी हैं। ऐसा माना जाता है कि भाजपा का पितृ संगठन आरएसएस महाराष्ट्र में विदर्भ राज्य का समर्थक है और उप्र में बुंदेलखंड राज्य निर्माण का भी वह समर्थन करता है, ऐसे में मायावती ने पच्छिम उप्र में इस मुद्दे को हथियार क़े तौर पर इस्तेमाल किया है।
मायावती लोकसभा चुनाव में मुस्लिम वोटों क़े ध्रुवीकरण क़े चक्कर में हैं, इसीलिए उन्होंने अनेक मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का निर्माण पुराना मुद्दा है और अजित सिंह क़े नेतृत्व में रालोद ने इसे काफी हवा भी दी है। इसीलिए बसपा प्रमुख ने चुनाव प्रचार के दौरान पश्चिमी उप्र को एक अलग, स्वायत्त राज्य बनाने का मुद्दा उछाला है। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह और उनके बाद भी इसी भूक्षेत्र को ‘हरित प्रदेश’ नामक राज्य बनाने को आंदोलन और अभियान छेड़े गए थे। बसपा को 2024 में इससे कोई बड़ा फायदा मिलेगा, ऐसे आसार नहीं हैं, क्योंकि मायावती राजनीतिक तौर पर उतनी सक्रिय भी नहीं हैं। किसी भूखंड, क्षेत्र का पुनर्गठन कर नया, अलग राज्य बनाना आसान नहीं है।
अलग राज्य बनाने के पीछे राजनीतिक समर्थन ही पर्याप्त नहीं, एक स्वतंत्र प्रशासनिक ईकाई स्थापित करना, भाषा और संस्कृति अहम कारक होते हैं। राज्य पुनर्गठन आयोग ने इन्हीं मुद्दों का व्यापक अध्ययन किया और 1955 में निष्कर्ष दिया कि अलग राज्य बनाने के लिए भाषा ही सबसे सशक्त आधार है। राज्य सिर्फ एक प्रशासनिक ईकाई, एक अलग, स्वतंत्र सरकार ही नहीं है, वहां लोकतांत्रिक संस्थानों की प्रक्रिया और कार्यप्रणाली भी भावनात्मक हो। करीब ढाई दशक पहले हरित प्रदेश रालोद का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा था, ज़ब अजित सिंह क़े राष्ट्रीय लोकदल सहित एक दर्जन से अधिक संगठन इसे लेकर आंदोलित थे, पर अब न तो जयंत चौधरी इसे लेकर गंभीर हैं और न कोई अन्य बड़ा नेता इसकी बात कर रहा है। ऐसे में चुनावी लाभ लेने क़े लिए मायावती क़े पक्ष में अलग पश्चिमी उत्तर प्रदेश का मुद्दा कितना कारगर होगा, यह भविष्य बताएगा।
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