बढ़ती बेरोजगारी की चिंता 

 बढ़ती बेरोजगारी की चिंता 

लोकसभा चुनाव 2024 क़े समय देश में बेरोजगारी का मुद्दा भले परवान न चढ़ पा रहा हो लेकिन केन्द्र सरकार क़े आर्थिक बढ़ोतरी के तमाम दावों क़े बावजूद चिंताएं श्रम बाजार, श्रम बल, उत्पादक रोजगार आदि को लेकर ज्यादा हैं। एक रिपोर्ट क़े मुताबिक देश में कुल बेरोजगारों में शिक्षित युवाओं की हिस्सेदारी 2000 में 54.2 फीसदी से बढक़र 2022 में 65.7 फीसदी हो गई है। जो रोजगार बढ़ा है, उसके दो-तिहाई में स्वरोजगार वाले कामगार हैं। कृषि में भी बेरोजगारी बढ़ी है। मैन्यूफैक्चरिंग में भी रोजगार की हिस्सेदारी स्थिर रही है। अर्थात, संकेत चिंताजनक हैं, जिन पर गंभीर मंथन किया जाना चाहिए। रिपोर्ट में भारत में कुल 83 फीसदी बेरोजगारी बताई गई है। यह सरकारी दावों क़े बिलकुल विपरीत है। दरअसल भारत में विकास का केंद्रीय मुद्दा ही यह रहा है कि अधिक से अधिक नौकरियां पैदा की जाएं।
 
बेशक यह अकेले सरकारी क्षेत्र में संभव नहीं है, लेकिन निजी क्षेत्र की भी शिकायत रही है कि उन्हें हुनरमंद कामगार ही नहीं मिल पा रहे हैं, जबकि कंपनियों में रिक्तियां हैं। नौकरियां या रोजगार के अवसर पैदा करना ही बहुत बड़ी चुनौती है। स्वरोजगार में दिहाड़ी मजदूर भी शामिल हैं। श्रम बाजार में औसतन हर साल 70-80 लाख नए कामगार प्रवेश करते हैं। हालांकि युवा बेरोजगारी में 2019 में 17.5 फीसदी से 2022 में 12.1 फीसदी की कमी आई है, लेकिन यह बेरोजगारी शहरी इलाकों के पढ़े-लिखे युवाओं में अधिक है। यदि इस वर्ग को देश के जनसंख्याई लाभांश में तब्दील करना है, तो ज्यादा से ज्यादा और हर किस्म के रोजगार पैदा करने होंगे। उद्योग और सेवा-क्षेत्र में स्किल्ड रोजगार बढ़ा है, लेकिन यह देश के श्रम बाजार की जरूरतों के विपरीत है। विडंबना यह भी है कि यदि नौकरी निकले चपरासी की, जिसके लिए शैक्षिक पात्रता 5वीं पास मांगी जाए, लेकिन 3700 पीएचडी धारक बेरोजगार भी आवेदन कर दें, तो यही कहा जा सकता है कि शैक्षिक डिग्रियां भी नौकरी की गारंटी नहीं हैं।
 
यह हमारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लिए गंभीर चुनौती है। देश की कामकाजी उम्र की आबादी करीब 63 फीसदी है। फिलहाल यह स्थिर है। यह जनसंख्या की ऐसी खिडक़ी है, जिसके जरिए अर्थव्यवस्था को नाटकीय रूप से बदला जा सकता है और नौकरियां ही नंबर एक सामाजिक और आर्थिक मुद्दा हैं। देश में जो युवा फिलहाल रोजगार, शिक्षा और प्रशिक्षण में नहीं हैं, उनकी हिस्सेदारी 29.2 फीसदी है। यह दक्षिण एशिया में सर्वाधिक है। बीते एक दशक के दौरान वेतनभोगियों अथवा स्वरोजगारों की औसत आमदनी या घटी है अथवा यथावत रही है। सच यही है कि रोजगार क़े मामले में सच्चाई और सरकारी आंकड़ों में ज़मीन आसमान का फर्क है। ज़मीनी हक़ीक़त यही है कि देश में एक नौकरी क़े लिए न्यूनतम 100 दावेदार आम बात है। अग्निवीर सैनिक भर्ती क़े विरोध क़े बीच भी अग्निवीर बनने क़े लिए युवाओं में भीड़ है। कांग्रेस सहित कुछ दल बेरोजगारी को राष्ट्रीय मुद्दा बना जरुर रहे हैं लेकिन आज क़े हालातों क़े लिए वह भी किसी हद तक जिम्मेदार है। चूंकि अब इन दिनों आम चुनाव का दौर है, लिहाजा सभी राजनीतिक दलों को बेरोजगारी के मुद्दे पर ईमानदारी से सोचना चाहिए और युवाओं क़े भविष्य क़े लिए कुछ ठोस करना चाहिए।
 
 
 
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