सवाल करती हुई कलम कि मौत..!!
(पवन सिंह)
समय को थोड़ा सा पीछे सरकाते हैं और 1980-90 के दशक पर ठहरते हैं। उस दौर की पत्रकारिता में गजब की ठसक और सवालों से भरे इतने तरकश होते थे कि बड़े से बड़ा सियासतदां भी पनाह मांग जाता था..!! अब पत्रकारिता से चाटुकारिता के इस लिजलिजे दौर में न वो तेवर हैं, न हिम्मत है, न धार है और सवाल तो है ही नहीं। मौजूदा पत्रकारिता का यह सबसे छिछला और सड़ांध भरा व बदबूदार दौर है...जहां लाइट-कैमरा-एक्शन पर मेकअप आर्टिस्ट द्वारा पुते पूर्व निर्देशित कठपुतलियां हैं, जो अब सवाल नहीं करती हैं।
एक वक्त था तब भी आंतकवादी घटनाएं और दंगे होते थे और अगली सुबह का अखबार जब हाथों में होता था तो फर्स्ट लीड भले ही दंगों/आतंकी घटनाओं पर हो लेकिन उस समय ऐसे लोगों को भी भरपूर जगह मिलती थी जो लोगों की जान बचाने के लिए अपनी जान दांव पर लगा देते थे। ख़बरें बैलेंस थीं..!! पैनिक क्रियेट नहीं करती थीं। हम लोगों से कहा जाता था कि पाज़िटिव न्यूज भी खोजो। दंगों/आंतकवादी घटनाओं के साथ लोगों के सामाजिक-धार्मिक सरोकारों से जुड़ी ख़बरें तपिश को कम करती थीं।
21 अप्रैल 2025 को काश्मीर में जो दुखद घटना हुई उसकी जिस तरह से नोएडा मीडिया द्वारा कवरेज हुई वह तमाम सवालों को छोड़कर सीधे-सीधे इस विषय पर केन्द्रित थी कि कौन कितना जहर समाज में सप्लाई कर सकता है। नोएडा मीडिया "बदबूदार पत्रकारिता" का झंडा-डंडा लेकर ग्राउंड जीरो से लेकर अपने दड़बे यानी स्टूडियो तक केवल "सड़ांध चर्चा" करता रहा। कहां गये वो सवाल जो सत्ता की आंख में आंख डाल कर पूछे जाने चाहिए थे? वो लोग क्यों एक सिरे से खारिज कर दिए गये जो अपने टट्टुओं की पीठ पर या अपनी पीठ पर लाद कर लोगों की जान बचा रहे थे? काश्मीर की टैक्सी एसोसिएशन के वह सैकड़ों लोग जिन्होंने तय किया कि वे बिना पैसा लिए पर्यटकों को उनके गंतव्य तक पहुंचायेंगे,श.... ये सब "लश्कर ए नोएडा मीडिया" की खबरों से गायब क्यों?
उन सैकड़ों काश्मीरियों को क्यों नहीं दिखाया गया जो अस्पतालों में खून देने के लिए लाइन लगाये हुए थे? क्या ये खबर का हिस्सा नहीं थे? किसके कहने से खबरों से ये पक्ष "लश्कर ए नोएडा मीडिया" चबा गया? कौन था वो शख्स जो नहीं चाहता था कि ये सब भी खबरों का हिस्सा बने? लेफ्टीनेंट नरवाने कि बहन रो-रोकर कह रही है कि डेढ़ घंटे तक घटना स्थल पर कोई सुरक्षाकर्मी नहीं पहुंचा यह वीडियो खबरों से क्यों गायब रहा? इस बार भी कुंभ की तरह जन पत्रकारिता हुई...और लोगों ने अपने-अपने मोबाइल निकाले। वीडियो सोशल मीडिया पर डाले...ऐसे वीडियो जब तक एक के बाद एक, आना शुरू हुए तब तक चंपूछाप रिमोट कंट्रोल मीडिया पूरे देश में, खासकर गोबरपट्टी में अपने एजेंडा का सीवेज फैला चुका था। 30-32 सालों के इतिहास में पहली बार पूरा काश्मीर बंद रहा..पहली बार लोग आंतकवाद के खिलाफ सड़कों पर तिरंगा लेकर निकले..यह एहसास अगर उनको मूल धारा से जोड़ती है तो इसे खबरों में जगह क्यों नहीं दी गई? क्या ये खबर, खबर का हिस्सा नहीं थी?
अब सवाल ये बनते हैं कि क्या खुफिया एजेंसियों के हमले के इनपुट्स थे, तो इसकी जवाबदेही किसकी बनती है? जब सरकार को पता है कि "ट्यूरिज्म का सीजन" आरंभ हो चुका है और पहलगाम तक यात्री जाते हैं तो इतनी बड़ी चूक हुई तो हुई कैसे? सबसे चौंकाने वाली बात यह है की ख़ुफ़िया एजेंसियों को इस तरह के हमलों की संभावनाओं के बारे में पहले से ही इनपुट मिले थे। अप्रैल, 2025 की शुरुआत में ही ख़ुफ़िया सूत्रों ने चेतावनी दी थी की आतंकी संगठन पहलगाम जैसे पर्यटन स्थलों को निशाना बनाने की योजना बना रहे हैं । इनपुट्स में यहां तक इंगित किया गया था की आतंकियों ने रेकी कर ली है और कोई बड़ा हमला हो सकता है। विगत 10 मार्च को केंद्रीय गृह सचिव गोविन्द मोहन ने जम्मू में एक उच्च स्तरीय समीक्षा बैठक भी की इसके बाद विगत 6 अप्रैल, 2025 को अमित शाह श्रीनगर में इंटीग्रेटेड कमान की बैठक की अध्यक्षता करते हैं । इसके बावजूद 21 अप्रैल, 2025 को आंतकवादी अपने खतरनाक मंसूबों को अंजाम देकर निकल जाते हैं और इसके बाद जब भारतीय मीडिया की देश को सबसे ज्यादा जरूरत थी वो सुलगती आग को पेट्रोल से सींच रहा था!!!
घटना को आधे घंटे के भीतर ही भारतीय मीडिया ने एक बड़ी वारदात को हिन्दू-मुस्लिम का रंग दे दिया। ग्राफिक्स का इस्तेमाल करके पोस्टर जारी हो गये? लेकिन यह सवाल छिपा लिया गया कि चंद रोज पहले ही संघ के मुखपत्र "पांचजन्य" में काश्मीर को लेकर क्या टिप्पणी की गई थी? प्रधानमंत्री का दौरा रद्द हो जाना...!! हालांकि, जब सोशल मीडिया पर सवाल उठे तो कहा गया कि मौसम खराब होने की सूचना के कारण ऐसा किया गया।
आज भी पुलवामा का सच सामने नहीं आया? ये सवाल आज भी वहीं खड़े हैं कि लंबी छुट्टी से ड्यूटी पर लौट रहे निहत्थे सीआरपीएफ के जवानों को "एअर लिफ्ट" क्यों नहीं किया गया? जब यह प्रोटोकॉल है कि अगर कानवाय (सेना का काफिला) चलेगा तो सिविलियन ट्राफ़िक बंद रहेगा, क्यों ऐसा नहीं हुआ? भारी-भरकम आरडीएक्स लेकर कार में आतंकी आराम से घूमते रहे? देवेन्द्र सिंह क्यों छोड़ा गया? उसकी कार में कौन लोग थे? सीआरपीएफ के तत्कालीन डीजी अभय प्रताप सिंह का वह खत (पुलवामा हमले से पहले का) आखिर अचानक कहां गायब हो गया ?
किसी दल के आईटी सेल के प्रवाह में बह जाना सबसे आसान बहाव है लेकिन पाकिस्तानी आर्मी चीफ के दो दिन पूर्व के एक धमकी भरे बयान के बाद यह घटना हुई... लेकिन मीडिया ने यह सब कुछ क्यों दबा दिया ..!!! यह खबर "सीवरेज बहस" का हिस्सा क्यों नहीं बनी? जब-जब कोई अमेरिकी राजनयिक भारत आता है अक्सर इस तरह की आतंकी घटनाएं होती हैं? फिर भी सतर्कता क्यों नहीं बरती गई? सवाल यह भी है कि क्या पाकिस्तान ने बलोच की ट्रेन किडनैपिंग का बदला लिया है? क्योंकि इस घटना पर हमारे बहादुर आईटी सेल ने अपनी मूर्खतापूर्ण बहादुरी दिखाई थी..और इस घटना को "गंध तरीके से" भारत के दो नेताओं के "सिर का ताज" बनाया था कि "वो हैं" तो मुमकिन है?अगर ट्रेन के कब्जे पर कुछ किया भी गया था तो इस तरह की घटना का श्रेय कौन सा बेवकूफ देश लेता है..? अगर किया भी था तो चिल्लाने की जरूरत क्या थी? ये सवाल भी बनता है कि सेना में दो लाख से अधिक जवानों की कमी क्यों?
बहुत से प्वाइंट है जिस पर मीडिया को बात करनी थी लेकिन बात और विषय घुमा दिए गये...नोट बंदी के बाद आतंकवाद की कमर ही टूट गई थी, का झंडा लहराने वालों से यह सवाल क्यों नहीं कि फिर भी लगातार आतंकवादी घटनाएं क्यों हो रही हैं ? क्या चैनलों और अखबारों को यह टैग लाइन/पंच लाइन दी गई थी कि "नाम पूछ कर मारा" यही "फ्रेम" रहेगा और क्या यह सवाल मना थे कि सुरक्षा में चूक कहां और क्यों हुई? मीडिया टैग लाइन/पंचलाइन ओढ़ कर वो सारे सवाल चबा गया जो हमारे-आपके सवाल थे? क्या अगली किसी दुखद घटना के इंतजार में...!!! क्योंकि टैग लाइन/पंचलाइन के चक्कर में मीडिया फिर से मूल विषय खा गया और बाकी का रायता फैला गया..!!! उस रायते में लिबरल, डेमोक्रेटिक, धर्म, सेकुलर, अंधभक्त, कम्युनिस्ट , अर्बन नक्सली, रूरल नक्सली, बुद्धिजीवी, प्रगतिवादी, मुल्ले, बुल्ले, सुल्ले, टुल्ले, कुल्ले...टाइप की पत्रकारिता में एक दुखद घटना को छिपा दिया गया...? एक हफ्ते बाद सब कुछ भुला दिया जाएगा जैसे...कंधार हाईजैक, अक्षरधाम, रघुनाथ मंदिर, कारगिल, संसद, अमरनाथ यात्रियों पर हमला, पठानकोट, उड़ी , पुलवामा...भुला दिया गया..!!! आगे फिर से कोई टैगलाइन/पंचलाइन के साथ भारतीय मेन स्ट्रीम मीडिया आगे आएगा और मूल विषय फिर से चबा जाएगा..!!
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‘तरुणमित्र’ श्रम ही आधार, सिर्फ खबरों से सरोकार। के तर्ज पर प्रकाशित होने वाला ऐसा समचाार पत्र है जो वर्ष 1978 में पूर्वी उत्तर प्रदेश के जौनपुर जैसे सुविधाविहीन शहर से स्व0 समूह सम्पादक कैलाशनाथ के श्रम के बदौलत प्रकाशित होकर आज पांच प्रदेश (उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और उत्तराखण्ड) तक अपनी पहुंच बना चुका है।
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